मैंग्रोव हमारे तटरक्षक (mangroves our natural coast guards)
कैसा होगा तटीय क्षेत्र का भविष्य , जाने मैंग्रोव के माध्यम से….
तटीय इलाकों में इंसानो की बढ़ती दखलंदाज़ी, बढ़ते शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन से यहाँ के पारितंत्र (ecosystem ) या कह लें इस क्षेत्र की जैवविविधता (biodiversity ) पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। खासतौर पर तटरक्षक कहे जाने वाले मैंग्रोव पेड़ों का अस्तित्व खतरे में आ चुका है। मैंग्रूव्ज़ को तटीय इलाकों का रक्षक इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह इस क्षेत्र के वातावरण को नियंत्रित रखता है। तटीय क्षेत्रों को तूफानों, सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं से बचाता है। इसलिए इन रक्षकों की रक्षा करना बहुत जरूरी है, नहीं तो भविष्य में प्राकृतिक विनाश को रोकना नामुमकिन हो सकता है। बीरबल साहनी इंस्टिट्यूट ऑफ़ पेल्योसाइंसेज (Birbal Sahni Institute of Palaeosciences) की वैज्ञानिक डॉक्टर ज्योति श्रीवास्तव (Jyoti Srivastava) बताती हैं की मैंग्रूव्ज़ के अध्ययन से हम तटीय इलाको में होने वाले जलवायु परिवर्तन के भूत, भाविष्य और वर्तमान के बारे में जान सकते हैं। डॉक्टर श्रीवास्तव और उनकी टीम के अन्य वैज्ञानिक पुजारिणी समल (Pujarini Samal), एस.आर.सिंगारासुब्रमन्यन (S.R.Singarasubramanian), पूजा नितिन सराफ (Pooja Nitin Saraf), एवं बिपिन चार्ल्स (Bipin Charles)का इस अध्ययन में मुख्य योगदान है।
मैंग्रोव ऐसे वृक्ष होते हैं जो खारे पानी या अर्ध-खारे पानी में पाए जाते हैं। अक्सर यह ऐसे तटीय क्षेत्रों में होते हैं जहाँ कोई नदी किसी सागर में बह रही होती है, जिस से जल में मीठे पानी और खारे पानी का मिश्रण होता है। जैसे डेल्टा क्षेत्र जहां पर नदियों व समुद्र का संगम होता है।
डॉक्टर ज्योति बताती हैं की मैंग्रोव दुनियाभर में लगभग 1,50,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले हुए हैं। कहने को यह धरती का एक बहुत छोटा सा हिस्सा मात्र ही हैं लेकिन पर्यावरण की दृष्टि से देखें तो इन वृक्षों की भूमिका बहुत अहम् है। तटीय इलाकों के पारितंत्र(ecosystem) , वहां की जैवविविधता और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में यह पेड़ मुख्य भूमिका निभाते हैं और इसका सीधा असर क्षेत्र के जनजीवन पर पड़ता है। मैंग्रोव आर्थिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। इनका इस्तेमाल औषधि निर्माण में किया जाता है। इन्हें तटरक्षक भी कहा जाता है क्योंकि यह समुद्र की लहरों और हवाओं से तटीय क्षेत्र के जनजीवन की रक्षा करते हैं साथ ही आपदा से भी बचाते हैं।
बढ़ते प्रदूषण , कटते पेड़, अद्योगीकरण से वातावरण काफी प्रदूषित हो रहा और वातावरण में कार्बन घुल रही है जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। इसके कारण साईक्लोन , सूखा, बाढ़ ,गर्मी बढ़ रही है। कार्बन तत्व पृथ्वी के तापमान को बढ़ाने का मुख्य दोषी है। पेड़ों की अन्य प्रजातियों के मुकाबले मैंग्रोव वृक्ष कार्बन को सबसे अधिक सम्माहित (absorb) करते हैं। मगर दुःख की बात यह है कि यह पेड़ विलुप्त होने की कगार पर हैं। तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं, ग्लेशियर के पिघलने से समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, इस वजह से तटीय इलाको को समुद्री की तरफ से होने वाली आपदाओं का खतरा बढ़ गया है। बहुत से क्षेत्र एवं वेटलैंड का स्थाई तौर पर डूबने का खतरा भी काफी बढ़ गया है।
अध्ययनों से पता चलता है कि मैंग्रोव के घटने से तटीय क्षेत्र की जनजीवन एवं जैव विविधता पर बुरा असर पड़ सकता है साथ ही पानी की गुणवत्ता भी प्रभावित हो सकती है। ग्रीनहाउस गैस के वातावरण में बढ़ने से इस सदी के अंत तक विश्व भर में समुद्र सतह का तापमान भी बढ़ जायेगा इसके साथ ही समुद्र स्तर भी .28 से 1.4 m तक बढ़ने की उम्मीद है।
आर्द्रभूमि या वेटलैंड (wetland) पृथ्वी का वह भाग होता है जहाँ के पारितंत्र (ecosystem ) का बड़ा हिस्सा स्थाई रूप से या प्रतिवर्ष किसी एक मौसम में जल में डूबा रहता है । ऐसे क्षेत्रों में जलीय पौधे काफी अधिक मात्रा में पाए जाते हैं।
अगर मैंग्रोव वृक्षों का भारत में फैलाव देखा जाये तो पूर्वी तट पर मैंग्रोव की मौजूदगी पश्चिम तट के मैंग्रोव से भिन्न है। पूर्वी तट पर तटीय वेटलैंड या आर्द्रभूमि पर मैंग्रोव की विभिन्न प्रकार की प्रजातियां देखने को मिलती हैं , क्योंकि इस क्षेत्र से भारत की अधिकतम नदियां समुद्री में गिरती हैं और इससे डेल्टा क्षेत्र में इन वृक्षों को ऐसा पानी मिलता है जहाँ पर खारे पानी एवं मीठे पानी की मात्रा की घुलनशीलता में संतुलन होता है। डेल्टा क्षेत्र में प्रतिदिन समुद्र का पानी चढ़ता और उतरता रहता है है और नदियों के कारण यहाँ के पानी में मीठे पानी के तत्व और समुद्री पानी के तत्व व् लवण संतुलित मात्रा में होते हैं। ऐसा पानी मैंग्रोव वृक्षों की जो प्रमुख प्रजातियाँ हैं उसके फलने-फूलने के लिए बहुत जरूरी है। अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों ने मध्य होलोसीन काल (आज से 6000 साल पहले का समय ) से वर्तमान और भविष्य में वर्ष 2050 - 2070 तक के वक़्त में मैंग्रोव के फैलाव और इससे तटीय क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रभाव को जानने का प्रयास किया है। इस अध्ययन से भूत एवं वर्तमान की जलवायु का तो पता चला ही है साथ ही भविष्य की जलवायु और मैंग्रोव पर पड़ने वाले प्रभाव और उससे तटीय क्षेत्रों पर बढ़ने वाले खतरे को भी जानना संभव हो सका है।
डॉक्टर श्रीवास्तव बताती हैं की मैंग्रोव का इन क्षेत्र के ईकोसिस्टम पर किस तरह का प्रभाव पड़ रहा है इसे समझने के लिए मैंग्रोव की दो प्रजातियों पर अध्ययन किया गया है। इनमें राइजोफोरा म्यूक्रोनाटा (rhizophora mucronata) एवं ऐविसेनिया ऑफिसिनेलिस (avicennia officinalis) मुख्य हैं। राइजोफोरा म्यूक्रोनाटा धीमी गति से बढ़ने वाला वृक्ष है। है इसकी ऊंचाई लगभग 20 से 25 मीटर तक होती है इनमें लम्बे पेड़ पानी की तरफ ज्यादा होते हैं और छोटे पेड़ ज़मीन की तरफ ज्यादा पाए जाते हैं। राइजोफोरा वृक्ष को संतुलित मात्रा में खारा और मीठा पानी चाहिए होता है यह समुद्र और नदी के उस स्थान पर होते हैं जहाँ दिनभर में समुद्र का पानी चढ़ता उतरता है और जब समुद्र जल उतरता है तब वह स्थान नदी के पानी से घिर जाता है ऐसे में इस क्षेत्र के जल में बराबर मात्रा में खारा एवं मीठा पानी मौजूद होता है। यह वृक्ष उष्णकटिबंधीय (ट्रॉपिकल tropical) एवं उपोष्णकटिबंधीय (सबट्रॉपिकल subtropical) क्षेत्र के नमी भरे लोलैंड (lowland ) या समुद्र के स्तर वाले क्षेत्रों में फलते-फूलते हैं , जहाँ का तापमान लगभग 20 से 28 डिग्री तक रहता है और वार्षिक वर्षा लगभग 1500 - 2500 mm तक होती है। पी एच ph 6 से 8.5 के बीच होता है। यह पेड़ तटीय क्षेत्र में सतह के कटाव को रोकने में मुख्य भूमिका निभाते हैं और इन इलाकों को तेज हवाओं और तुफानो से बचाते हैं। इस प्रजाति के मैंग्रोव की छाल का प्रयोग औषधि बनाने में किया जाता है। यह पेड़ हिन्द प्रशांत क्षेत्र (indo pacific region) से लेकर पूर्वी अफ्रीका तक फैले हैं।
ऐविसेनिया ऑफिसिनेलिस (avicennia officinalis) भी एक हरे-भरे मैंग्रोव पेड़ है जो छोटे में घने और झाड़ की तरह दिखते हैं और बड़े होने पर इनकी लम्बाई 15 m तक हो जाती है। यह ज्यादातर रेतीली व खारे दलदल में उगते हैं जो ज्यादातर नदी का किनारा या समुद्र का किनारा होता है। यह ज्यादातर नमी भरे उष्णकटिबंधीय (ट्रॉपिकल tropical) एवं उपोष्णकटिबंधीय (सबट्रॉपिकल subtropical) इलाकों में मिलते हैं, मगर समुद्र के आसपास ही होते हैं जहाँ का तापमान 25 से 34 डिग्री तक होता है वर्षा 1000 -3000 mm होती है और ph 6 से 8.5 होता है। इन पेड़ों को अधिक मात्रा मैं सूरज की रौशनी चाहिए होती है। इसको भी खारा और एल्कलाइन पानी चाहिए होता है। यह एशिया के तटीय क्षेत्र में पाकिस्तान व् फ़िलीपीन्स और ऑस्ट्रेलिया तक फैले हुए हैं। इन पेड़ों का इस्तेमाल फोड़े (boils ) एवं ट्यूमर की दवाओं के निर्माण में किया जाता है। बढ़ती आबादी तटीय क्षेत्रों में मनुष्यों की दखलंदाज़ी और जलवायु परिवर्तन से इन पेड़ों का अस्तित्व भी खतरे में हैं।
टाइडल क्रीक (tidal creek) - किसी नदी या जलधारा का वह भाग जो सागर के ज्वार भाटा (tide ) से प्रभावित हो उसे टाइडल क्रीक (tidal creeks) कहते हैं । इसमें जलधारा का जल सागर की ओर बहता है लेकिन समुद्र का खारा जल भी ज्वार भाटा के अनुसार बदलती मात्रा में जलधारा में प्रवेश कर के मिलता रहता है।
ज्वार (tide) एवं भाटा (ebb) - सागर के जल के ऊपर उठकर आगे बढ़ने को ज्वार (Tide) तथा सागर के जल को नीचे गिरकर पीछे लौटने (सागर की ओर) भाटा (Ebb) कहते हैं।
इन पेड़ों की प्रजाति पर किये गए अध्ययन से हम भूत, भविष्य और वर्तमान में जलवायु परिवर्तन और उससे उत्पन्न होने वाले खतरे का आभास आसानी से कर सकते है। राइजोफोरा (rhizophora ) का इलाका छिलका (महानदी डेल्टा ), पूर्व गोदावरी डेल्टा, कृष्णा डेल्टा से लेकर द्वारका (गुजरात डेल्टा ) तक फैला हुआ है। ऐविसेनिया ऑफिसिनेलिस (avicennia officinalis) का इलाका सुन्दरबन वेटलैंड, छिलका , सुबर्णरेखा ( महानदी डेल्टा ), पूर्व गोदावरी डेल्टा से होता हुआ विक्रोली एवं वसा (महाराष्ट्र डेल्टा ), पोरबंदर एवं दिउ (गुजरात तट) तक फैला हुआ है। इन प्रजातियों पर जलवायु परिवर्तन का असर पूरी तरह से देखा जा सकता है। वैज्ञानिकों द्वारा जीवाश्मों पर किये गए अध्ययनों से पता चलता है कि मध्य होलोसीन काल (middle holocene -6000 years, आज से 6000 साल पहले का समय ) में यह वृक्ष काफी अधिक मात्रा में थे । उस काल की तुलना में वर्तमान के समय में इनकी संख्या में काफी गिरावट देखने को मिली है। जिनके कारणों का पहले ही जिक्र किया जा चुका है। इन दोनों प्रजातियों पर किये गए अध्ययनों से पता चलता है कि वर्तमान से 2050 तक के अंतराल में देखा जाए तो जिन क्षेत्रों में यह फलते-फूलते हैं, वहां लगभग 1.16 %,3.45 %, 1.83%, 2.93 % तक का क्षेत्र कम हो सकता है और 2070 तक यह क्षेत्र 1.30%, .79%, एवं 2.53 % तक और घट जायेंगे । इसका अहम कारण वेटलैंड में तापमान का बढ़ना, जलवायु परिवर्तन और इस वजह से समुद्र स्तर का बढ़ना है।
अध्ययन से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि दक्षिण में मैंग्रोव के घटने का सबसे ज्यादा खतरा है। डॉक्टर ज्योति ने बताया कि वर्ष 2070 तक गुजरात तट (gujarat coast), सुन्दरबन (sundarban), महानदी डेल्टा, (mahanadi delta), छिलका तटीय क्षेत्रों (chilka coastal region) की तुलना में दक्षिण पूर्व (south east ) एवं दक्षिण पश्चिम (south west ) तटीय क्षेत्रों में मैंग्रोव के घटने या पूरी तरह से विलुप्त होने का अधिक खतरा है। इसका प्रमुख कारण वर्षा में गिरावट आना, पृथ्वी के तापमान के बढ़ने (global warming) से ग्लेशियर का पिघलना और इस वजह से समुद्र के स्तर का बढ़ना माना जा रहा है । शोध से यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि समुद्र स्तर के बढ़ने से तटीय इलाको (वेटलैंड) के डूब जाने से मैंग्रोव वृक्ष का विकास तट से हटकर ज़मीन (land) की तरफ बढ़ेगा। मगर बढ़ते शहरीकरण और बदलती जलवायु से इनके विकास पर बुरा असर पड़ने से इनकी संख्या के घटने या पूरी तरह से विलुप्त होने की उम्मीद है। यह कहा जा सकता है कि दक्षिण भारत के तटीय इलाकों को वर्ष 2070 तक आते-आते प्राकृतिक आपदाओं का सामना भी अधिक करना पड़ेगा और बहुत से क्षेत्रों का डूबने का खतरा भी बढ़ जायेगा है।
by,
P.D.Saxena
credit,
contents lists available at ScienceDirect
Ecological Informatics
journal homepage: www.elsevier.com/locate/ecolinf
Ensemble modeling approach to predict the past and future climate suitability for two mangrove species along the coastal wetlands of peninsular India
Pujarini Samal, Jyoti Srivastava, S.R. Singarasubramanian, Pooja Nitin Saraf , Bipin Charles
Department of Earth Sciences, Annamalai University, Tamil Nadu 608002, India Birbal Sahni Institute of Palaeosciences, 53 University Road, Lucknow 226 007, India
Academy of Scientific and Innovative Research (ACSIR), Ghaziabad 201002, India Institute for Biodiversity Conservation and Training 7Main Road, Shankar Nagar, Bangalore, Karnataka 560096, India