भारत के साथ-साथ विश्व स्तर पर बढ़ती जनसंख्या की जरूरत को देखते हुए खाद्यान्न की मांग बढ़ रही है। इस मांग के चलते कृषि क्षेत्र में भी वैज्ञानिक अध्ययन एवं शोध कार्य में बड़ी तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। मुख्य लक्ष्य यही है कि आधुनिक तकनीक एवं शोध द्वारा कृषि उत्पादन को बेहतर और उन्नति की तरफ ले जाया जा सके। सिर्फ भारत की बात करें तो हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है। इसलिए यहाँ पर कृषि से सम्बंधित शोधकार्य एक आवश्यकता है। कई दशकों से हमारे वैज्ञानिक अपने अध्ययन एवं शोध से इस क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं। इसी श्रृंखला को कायम रखते हुए लखनऊ स्थित सी. एस. आई. आर (C.S.I.R) के प्रमुख संस्थानों में से एक भारतीय विष विज्ञान अनुसंधान संस्थान (Indian Institute of Toxicology Research IITR, Lucknow) के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर सत्यकाम पटनायक (Dr Satyakam Patnaik) और उनकी टीम द्वारा किये गए अध्ययन से कृषि उत्पादन क्षेत्र में एक बड़ी क्रांति आ सकती है।
वर्तमान में जिस प्रकार स्वास्थ्य (medical) क्षेत्र में नैनोटेक्नोलाजी (nanotechnology ) व् नैनोसाइंस (nanoscience) एवं टार्गेटेड थेरेपी (targeted therapy ) पर बहुत बड़े स्तर पर काम हो रहा है उसी प्रकार कृषि क्षेत्र में भी इसी टेक्नॉलजी का इस्तेमाल किया जा रहा है।
डॉ पटनायक ने बताया कि फसलों के अच्छे उत्पादन के लिए जरुरी है कि फसलें स्वस्थ्य एवं कीटों व सक्रमण मुक्त रहें और इनसे बचाव के लिए किसानों को उर्वरक (fertilizer) एवं कीटनाशकों दवाओं का इस्तेमाल करना पड़ता है। दुनिया के लगभग हर कोने में फसलों को कीट मुक्त करने और संक्रमणों से बचाने के लिए इमिडाक्लोप्रिड (Imidacloprid) नामक कीटनाशक का इस्तेमाल किया जाता है। यह कीटनाशक दवा कीटों के तंत्रिका तंत्र पर आक्रमण करती है और उन्हें नष्ट कर देती है। पेड़-पौधों को कीटों से मुक्त रखने के लिए इनका छिड़काव जरूरी है। मगर अध्ययन से पता चलता है की जब खेतों में इनका छिड़काव किया जाता है तब इनका मात्र .1% प्रतिशत हिस्सा ही पेड़ों के काम आता है बाकी बर्बाद हो जाता है और पर्यावरणीय प्रदूषण का प्रमुख कारण बनता है। यह न सिर्फ पर्यावरण के लिए घातक साबित हो सकता है बल्कि इनके संपर्क में आने वाले किसानों के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है। इसके अतिरिक्त कीटनाशक जो एक तरह के हाइड्रोकार्बन (hydrocarbon) होते हैं। सूर्य की किरणों के संपर्क में आने से विघटित (टूट) होकर वातावरण में घुल जाते है। इस प्रक्रिया को फोटोडिग्रेडेशन (photodegradation) कहते हैं। इसके अलावा यह मिट्टी में घुलकर भूमिगत जल में पहुंचते हैं। इस तरह से यह पूरे पारितंत्र (ecosystem) के लिए घातक साबित होते हैं।
डॉक्टर पटनायक ने बताया कि शोध में इस समस्या से निपटने के लिए बेहतर और कारगर इलाज खोजने का प्रयास किया गया है और उसमें सफलता प्राप्त हुई है। यह इलाज नैनो नैनोसाइंस (nanoscience) या नैनोटेक्नोलॉजी (nanotechnology) से ही जुड़ा हुआ है। डॉ पटनायक ने बताया ज्यादातर खेतों में कीटनाशक दवा की मात्रा जिस अनुपात में डाली जानी चाहिए उससे कहीं अधिक इस्तेमाल में लायी जाती है। इसके कई कारण हो सकते है, इसमें से सबसे बड़ा कारण यह है कि अकसर किसानों को पता नहीं होता है की दवा को किस अनुपात में डालना चाहिए। दूसरा अहम कारण शिक्षा की कमी और कीटनाशक दवा से जुड़ी वैज्ञानिक जानकारी का न होना भी माना जा सकता है। इस अज्ञानता की वजह से कीटनाशक की बर्बादी होती है। इस प्रकार से किसानों को आर्थिक और सेहत दोनों तरीकों से नुकसान पहुंचता है। वैसे तो मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म जीव (microbes ) प्राकृतिक तौर पर हाइड्रोकार्बोन्स (hydrocarbons ) को ख़त्म करते रहते हैं। मगर जब यह अनुपात बिगड़ता है यानि हाइड्रोकार्बन की मात्रा सूक्षजीवों से अधिक हो जाती है तब इनका नष्ट होना असंभव हो जाता है। तब यह वातावरण में घुलकर पूरे पर्यावरण के लिए गंभीर समस्या खड़ी करने लगते है और इसका असर पूरी फ़ूड चेन (food chain or food cycle ) पर पड़ता है।
डॉक्टर पटनायक बताते हैं कि जिस प्रकार मेडिकल क्षेत्र में इलाज के लिए नैनोटेक्नोलॉजी, नैनोसाइंस, टार्गेटेड थेरेपी के माध्यम से दवाओं को लक्षित स्थान पर पहुंचाकर अलग-अलग बिमारियों के इलाज पर काम चल रहा है। जीन थेरेपी के जरिये जीन स्तर का बड़े स्तर पर मरीज़ों को ठीक करने का प्रयास चल रहा है उसी प्रकार पेड़-पौधों के इलाज़ में भी नैनो तकनीक, टार्गेटड थेरेपी का सहारा लिया गया है। उन्होंने बताया कि अभी तक इमिडाक्लोप्रिड (Imidacloprid) कीटनाशक दवा का छिड़काव किया जाता है। इस माध्यम से यह पेड़ों की ऊपरी सतह पर पहुँचती है। डॉक्टर पटनायक और उनकी टीम ने इसी दवा को सीधे लक्ष्य पर पहुंचाने का प्रयास किया है। इस प्रक्रिया में इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि यह आस-पास के वातावरण को प्रभावित किये बगैर सिर्फ कीड़ों को ख़त्म करे। इसके साथ ही इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि इमिडाक्लोप्रिड (Imidacloprid) कीटनाशक दवा की मात्रा पौधों को उतनी ही मिले जितनी उन्हें जरूरत हो।
डॉक्टर पटनायक ने बताया कि शोध के दौरान नैनोतकनीक (nanotechnology ) का इस्तेमाल करके एक छोटे मोती नुमा या साबूदाने के आकार की संरचना तैयार करी गई जिसे मोती या बीड्स (beads) भी कह सकते हैं । पौधों तक कीटनाशक दवा को पहुंचाने के लिए बीड्स को वाहक या कार्गो की तरह प्रयोग मैं लाया गया। इन बीड्स के माध्यम से कीटनाशक दवा को पौधों की जड़ो में डाला गया। अभी तक कीटनाशक का पेड़ों पर छिड़काव भी किया जाता रहा है लेकिन पहली बार छिड़काव के स्थान पर दवा को बीड्स या कह लें साबूदाने के आकर की इस संरचना के जरिये सीधे जड़ों में डाला गया। इस पद्धति से काफी सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। अध्ययन के दौरान देखा गया की वाहक के माध्यम से पहुंचाई जाने वाली कीटनाशक दवा का असर पौधों में धीरे-धीरे और काफी प्रभावी ढंग से होता है। इसके आलावा यह आस- पास के पेड़- पौधों और जीव जन्तु को प्रभावित करे बगैर सीधे कीट को नष्ट करता है। अध्ययन के दौरान एफिड (aphid ) नामक कीट को बीड्स के माध्यम से दी जाने वाली दवा के जरिये नष्ट किया गया। इस प्रक्रिया की खासियत यह है कि कीटनाशक दवा आसपास के वातावरण में घुलती नहीं है। आम प्रक्रिया मैं भी इमिडाक्लोप्रिड (Imidacloprid) कीटनाशक दवा का छिड़काव करके एफिड (aphid ) नामक कीट को ख़त्म किया जाता है। मोती या बीड को कीटनाशक के लिए वाहक के तौर पर इस्तेमाल करने से दवा बेकार नहीं होती है और कम मात्रा में ज्यादा असर देखने को मिलता है। मोती (beads) या साबूदाने के समान दिखने वाले यह वाहक जिन्हें हाइड्रोजैल बीड्स भी कहा गया है। यह दो प्राकृतिक पॉलीमर अल्जिनेट (alginate) और काईटोसन (chitosan) से बनाए गए हैं। इसके साथ ही थर्मल पावर प्लांट (thermal power plant ) से निकलने वाली फलयाश (fly ash) के ही सुधरे (refined) हुए रूप सिनोस्फीयर (cenosphere) का भी उपयोग किया गया है। फ्लाई ऐश (fly ash) में हैवी मेटल्स अधिक मात्रा में होते है। इसलिए इनकी विषाक्तता (toxicity) ज्यादा होती है जबकि सिनोस्फीयर ‘cenosphere’ में विषाक्त तत्व बहुत कम हो जाते हैं।
यह दोनों ही पॉलीमर विभिन्न क्षेत्रों में इस्तेमाल में लाये जाते हैं जैसे बायो मेडिकल, कॉस्मेटिक, प्रदूषित पानी को साफ़ करने के लिए आदि। इन बीड्स को हाइड्रो जेल बीड्स इसलिए कहा गया है क्योंकि इसमें जेल (gel ) के समान गुण होते है। जब यह पानी के संपर्क में आते हैं तब इनमें पानी को अपने में समाहित (absorb) करने की काफी अधिक गुंजाइश होती है। अल्जिनेट (alginate) और काईटोसन (chitosan) पॉलीमर से निर्मित बीड्स को कई सतह में बांटा गया है। भीतर से इनका आकार खाने वाली चीज़ (cheese ) के समान होता है। इनमें छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। इन छिद्रों के भीतर कीटनाशक दवा को रखा गया है उसके चारों तरफ सेनोस्फेयर cenosphere की सतह बनाई गयी है। उसके ऊपर काईटोसन (chitosan) एवं अल्जिनेट (alginate) की परत होती है। सिनोस्फीयर (cenosphere ) वाहक ‘बीड्स’ को मज़बूती व् स्थिरता प्रदान करते हैं। जब यह बीड्स पौधों की जड़ो में डाले जाते हैं तब मिट्टी में मौज़ूद सूक्ष्म जीव (microbes) सतह दर सतह इन पॉलीमर को खाते जाते हैं और इस तरह से कीटनाशक दवा भी ज़रुरत के अनुसार पौधों को मिलती जाती है। इस तकनीक का इस्तेमाल करके बीड्स का ऐसे जीव-जंतुओं एवं पौधों पर भी अध्ययन किया गया जिन्हे इनकी आवश्यकता नहीं होती है और यह सभी फ़ूड चेन या फ़ूड साइकिल के मुख्य पात्र हैं। जैसे मिट्टी में मिलने वाले बैक्टीरिया, पानी में पाई जाने वाली ज़ेबरा फिश एवं पेड़-पौधे। अध्ययन कर के देखा गया की बीड्स का इनपर प्रभाव नहीं पड़ा। इससे यह बात सामने आयी है की बीड्स के माध्यम से दी जाने वाली कीटनाशक दवा परोक्ष और अपरोक्ष रूप से फ़ूड चेन को नुकसान नहीं पहुंचाती हैं।
By,
P.Datt.Saxena
credit:
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pH-responsive eco-friendly chitosan modified cenosphere/alginate composite hydrogel beads as carrier for controlled release of Imidacloprid towards sustainable pest controller for controlled release of Imidacloprid towards sustainable pest control
https://doi.org/10.1016/j.cej.2021.131215
Amrita Singh, Aditya K. Kar, Divya Singh, Rahul Verma, Nikita Shraogi, Alina Zehra , Krishna Gautam, Sadasivam Anbumani, Debabrata Ghosh, Satyakam Patnaik
Water Analysis Laboratory, Nanomaterial Toxicology Group, CSIR-Indian Institute of Toxicology Research (IITR), India Ecotoxicology Laboratory, Regulatory Toxicology Group, CSIR-Indian Institute of Toxicology Research (IITR), Immunotoxicology laboratory, Food Drug and Chemical Toxicology Group, CSIR-Indian Institute of Toxicology Research (IITR), Vishvigyan Bhawan, 31, Mahatma Gandhi Marg, Lucknow 226001, Uttar Pradesh, India, Academy of Scientific and Innovative Research (ACSIR), Ghaziabad 201002, India.