शहरीकरण एवं औद्योगीकरण के बढ़ने से न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुँच रहा है, बल्कि इंसानों व अन्य जीव जन्तुओं के लिए भी यह गंभीर समस्या बनता जा रहा है। इसके चलते एक और जटिल समस्या ने दरवाज़े पर दस्तक देनी शुरू कर दी है। यह समस्या संक्रमण दूर करने के लिए प्रयोग में लायी जाने वाली एंटीबायोटिक दवाओं के कारण उत्पन्न हो रही है। सीएसआईआर के प्रमुख संस्थानों में से एक भारतीय विष विज्ञान अनुसंधान संस्थान, लखनऊ (CSIR- Indian Institute of Toxicology Research, Lucknow ) की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर प्रीति चतुर्वेदी भार्गव (Dr. Preeti Chaturvedi Bhargav) और उनकी टीम ने अपने अध्ययन में कुछ इसी प्रकार के तथ्य सामने रखे हैं। अध्ययन में देखा गया है कि अस्पतालों, घरों, उद्योगों, दवाइयों की फैक्ट्री आदि से निकलने वाले अपशिष्ट एवं प्रदूषित तत्व (effluents and wastewater) जिसमें अनेक प्रकार के रासायनिक तत्व, एंटीबायोटिक दवाओं एवं हैवी मेटल्स के सूक्ष्म कण/अवशेष मौजूद होते हैं। यह परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जलीय पारितंत्र (water ecosystem ) यानि नदी एवं झीलों में घुल रहे हैं। इनके घुलने से जलीय जीवन में फलने-फूलने वाले जीवाणुओं (bacteria) एवं सूक्ष्म जीवों (microrganisms) में एंटीबायोटिक दवाओं, हैवी मेटल्स एवं रसायनों के लिए प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो रही है ।
शोध से पता चला है कि एंटीबायोटिक दवाओं के सूक्ष्म कण/अवशेष पानी में मौजूद जीवाणुओं के जीन को प्रभावित कर रहे हैं। डॉक्टर प्रीति बताती हैं कि जीन स्तर पर विकसित होने वाली यह प्रतिरोधक क्षमता सिर्फ एक बैक्टीरिया तक ही सीमित नहीं अपितु यह प्रभावित जीन दूसरे बैक्टीरिया में भी स्थानांतरित होकर उसमें भी प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न कर रहे हैं। इस प्रकार से जीवाणुओं (bacteria) में प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो रही है। यही बैक्टीरिया फ़ूड चेन के जरिए इंसानों को संक्रमित करते हैं, ऐसी स्थिति में इस संक्रमण को दूर करना नामुमकिन हो सकता है। एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का उत्पन्न होना मानव जनित अनियमित गतिविधियों का ही परिणाम है। दूसरा अहम् पहलू यह भी है कि अपशिष्ट, प्रदूषित तत्व एवं पानी ‘वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट प्लांट’ (waste water treatment plant) में साफ़ किया जाता है और उसके बाद यह नदियों में जा मिलता है। मगर अभी मौजूदा ट्रीटमेंट प्लांट में यह क्षमता नहीं है कि वह प्रदूषित पानी में मौजूद रासायनिक तत्व, एंटीबायोटिक दवाओं के सूक्ष्म कणों को हटा सके। इस समस्या से निपटने के लिए भी अध्ययन चल रहे हैं। मगर जिस तेज़ी से एंटीबायोटिक दवाओं की खपत बढ़ रही है ,उसी रफ़्तार से इन्हें साफ़ करने की भी जरुरत है। इसके साथ ही एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल पर भी नियंत्रण लगाने की जरूरत है।
अध्ययन में देखा गया है कि अस्पतालों, उद्योगों एवं घरों से निकलने वाले अपशिष्ट में बहुत अधिक मात्रा में एंटीबायोटिक की मात्रा पायी गयी है। इनमें एमोक्सिलिन (amoxicillin), डॉक्सीसाइक्लिन (doxycycline), सेफालेक्सिन (cephalexin), सिप्रोफ्लोक्सासिन (ciprofloxacin) आदि मुख्य हैं। एंटीबायोटिक दवाएं इंसानों के साथ-साथ पशु -पक्षियों के इलाज़ में भी प्रयुक्त होती हैं। फसलों को भी संक्रमण मुक्त करने के लिए बहुत से रसायनों को इस्तेमाल में लाया जा रहा है। पूरे विश्व में जिस प्रकार जनसँख्या बढ़ रही उसी प्रकार दवाओं का इस्तेमाल भी बढ़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ( World Health Organization ‘WHO’ ) एवं सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (Center for Disease Control and Prevention ‘CDC’) की रिपोर्ट की मानें तो प्रति वर्ष अमेरिका में 2.8 मिलियन मरीज़ ऐसे बैक्टीरिया से संक्रमित पाए गए हैं, जिनमें एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो चुकी है। 35,OOO हज़ार से ज्यादा लोगों की इस कारण मृत्यु हुई है। WHO की रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में लगभग 7,00,000 लोग इस तरह के बैक्टीरिया से प्रभावित हुए हैं। माना जा रहा है कि अगर इसी प्रकार चलता रहा तो सन 2050 तक यह समस्या एक महामारी का रूप ले सकती है। अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर यही स्थिति रही तो लगभग 10 million मौतें सिर्फ इसी वज़ह से होंगी। इन बीमारियों में सांस से जुड़े संक्रमण, यूरिनरी ट्रैक्ट सम्बंधित संक्रमण सबसे ऊपर आते हैं और इन्हीं को ठीक करना मुश्किल हो जायेगा।
प्रदूषित तत्व बैक्टीरिया के लिए पौष्टिक आहार की भूमिका निभाते हैं। साथ ही एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधक क्षमता भी पैदा कर रहे हैं। झीलों, नदियों में प्रदूषित पानी ‘ट्रीटमेंट प्लांट’ से होते हुए नदी तक पहुँचता है परन्तु कभी-कभी अधिक बारिश के कारण बिना ट्रीटमेंट के अपशिष्ट पानी (raw wastewater) नदियों में पहुँच जाता है। ऐसे में पानी में एंटीबायोटिक दवा के सूक्ष्म कण भी बहुत अधिक मात्रा में पहुंचते है। डॉक्टर प्रीति चतुर्वेदी भार्गव ने बताया की अध्ययन के दौरान प्रभावित बैक्टीरिया में कुछ ऐसे जीन देखने को मिले हैं, जिसमें एक ही कोशिका के भीतर अपना स्थान बदलने की प्रवति होती हैं। इन्हें जंपिंग जीन या मोबाइल जीन एलिमेंट (jumping gene or mobile gene element) कहते हैं। यह एक बैक्टीरिया से दूसरे बैक्टीरिया में भी पहुंच सकते हैं। इस प्रकार यह पूरे बैक्टीरिया समूह को प्रभावित कर सकते हैं। यह स्थानांतरण हॉरिज़ॉन्टली (horizontally) या क्षैतिज दिशा में अधिक होता है।
अपने देश में यह समस्या क्या रूप ले रही है, इसे जानने के लिए सबसे पहले गंगा नदी को चुना गया क्योंकि हमारे देश में गंगा नदी का एक अलग ही महत्व है। यह नदी धार्मिक एवं आर्थिक दोनों ही दृष्टि से ख़ास है। विश्व का सबसे बड़ा और धार्मिक मेला कुम्भ और अर्ध कुम्भ जिसमे लाखों भक्त स्नान कर अपने को भाग्यशाली मानते हैं, जिसका आयोजन 12 व् 6 वर्षों के अंतराल में गंगा नदी के किनारे होता है। गंगा और उसकी सहायक नदियों के आस-पास देश के महत्वपूर्ण शहर होने के कारण अस्पताल, घरेलू उपयोग, सिंचाई एवं उद्योगों में इसका पानी सिर्फ इस्तेमाल ही नहीं हो रहा है बल्कि इन सभी से निकलने वाले अपशिष्ट भी ट्रीटमेंट प्लांट से होते हुए इसमें गिरते हैं। अध्ययन बताते हैं कि गंगा के बहुत से हिस्से में पानी की गुणवत्ता पर असर पड़ा है। इसका मुख्य कारण नदी में लगातार अपशिष्ट (effluents ) घुल रहे हैं और इसमें मौजूद एंटीबायोटिक दवाओं के मिश्रित सूक्ष्म तत्व/अवशेष लगातार नदी में मिल रहे हैं। अध्ययन के दौरान पानी में ऐसे बैक्टीरिया के बारे में पता लगाया गया जिसमें एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो रही है। यह भी देखा गया कि बैक्टीरिया में प्रतिरोधक क्षमता सिर्फ एक एंटीबायोटिक के प्रति है या एक से अधिक एंटीबायोटिक के लिए विकसित हो रही है। इसे (multi drug resistance ‘MDR’) भी कहा जाता है। जीवाणुओं में जीन की क्या भूमिका है आदि। शोध के लिए उत्तर प्रदेश के 11 स्थानों से गंगा नदी की ऊपरी सतह से पानी के नमूने एकत्रित किये गए। यह वही स्थान हैं जहां पर मानव हस्तक्षेप काफी अधिक है। एकत्र किये गए पानी की गुणवत्ता, इसमें मौजूद सूक्ष्मजीव एवं बैक्टीरिया पर मानव गतिविधियों द्वारा होने वाले नुकसान को जानने के लिए कई परीक्षण किये गए। इस जांच में भौतिक (physicochemical) और जीवाणु तत्व (bacteriological) अध्ययन शामिल हैं। नमूनों में से 243 अलग-अलग बैक्टीरिया की कॉलोनी को पृथक किया गया। बैक्टीरिया समूह में 177 ग्राम_नेगेटिव (gram_negative) पाए गए और 60 ग्राम_पॉजिटिव (gram_positive) थे। अलग किये गए बैक्टीरिया के 243 समूह पर 10 अलग-अलग ग्रुप - बीटा लेक्टम (beta lactam), ग्ल्य्को पेप्टाइड (glycopeptides), सेफालोस्पोरिन्स (cephalosporins ), लिंकसिमिडेस (lincosamides), सुल्फोनामिडस (sulfonamides), मैक्रोलाइड्स (macrolides) एवं टेट्रासाइक्लीन (tetracycline) की लगभग 16 एंटीबायोटिक के असर को देखा गया। 243 में से 206 समूह में कई एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता (multi drug resistance ) पायी गयी। यह क्षमता तीन या उससे अधिक एंटीबायोटिक समूह के प्रति देखने को मिली। 243 बैक्टीरिया की कॉलोनी में से 126 में बीटा लैकटीमएस (beta lactamase) नामक एंजाइम उत्पन्न करने वाले जीन पाए गए। इसका शायद मुख्य कारण यह भी है कि अस्पतालों में सबसे अधिक beta lactam समूह की एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है। यह बीटा लैकटीमएस (beta lactamase) नामक एंजाइम बीटा लैक्टम (beta lactam) नामक मिश्रण वाली एंटीबायोटिक दवा के असर को शिथिल करता है। डॉक्टर प्रीति बताती हैं कि बीटा लैकटीमएस (beta lactamase) एंजाइम पेन्सिलिन (pencillins), सफालोस्पोरिंस (cephalosporins), करबापेनेम्स (carbapenems) एवं मोनोबैक्टम (monobacteam) समूह के एंटीबायोटिक में मौज़ूद बीटा लैक्टम रिंग (beta lactam ring ) को तोड़ देता है इस प्रकार एंटीबायोटिक का असर ख़त्म हो जाता है। इन्हें एक्सटेंडेड स्पेक्ट्रम बीटा लैकटीमएस (‘ESBL’ extended spectrum beta lactamases ) भी कहा जाता है। यह जीन क्रोमोसोमल डी एन ए एवं और प्लाज्मिड डी एन ए में भी पाए जाते हैं। बैक्टीरिया में इस तरह के एंजाइम का बनना बीटा लैक्टम एंटीबायोटिक की भूमिका पर बुरा असर डाल सकता है।
अध्ययन में पाया गया कि एन्टेरोबक्टेरियसए (Enterobacteriacae family) परिवार के बैक्टीरिया जैसे एशेरिकिया कोलाई (E.coli), शिगेला (Shigella) ,साल्मोनेला (Salmonella) आदि यह सभी पैथोजेनिक या रोगजनक सूक्ष्मजीव होते हैं जिनका पहले बीटा लैक्टम एंटीबायोटिक द्वारा इलाज़ संभव था लेकिन इनमें भी जीन स्तर पर प्रतिरोधक क्षमता (beta lactamase resistance ) विकसित हो रही है इसके साथ ही जीवाणुओं के कुछ ऐसे समूह पर भी प्रदूषक तत्वों का प्रभाव पड़ रहा है जो संक्रमण नहीं फैलाते हैं। इनका प्रभावित होना जलीय पर्यावरण के लिए खतरनाक है। इस बढ़ते खतरे की मुख्य वजह यही है की घरेलू स्तर पर डॉक्टर की सलाह लिए बगैर एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन, जो भारत में बहुत आम बात है, अस्पतालों में संक्रमण की रोकथाम के लिए इनकी खपत का दिन रात बढ़ना, व्यावसायिक और कृषि क्षेत्र में रसायनों का इस्तेमाल होना आदि शामिल है। यह समस्या इतनी जटिल नहीं होती अगर अपशिष्ट या प्रदूषित पानी एवं अन्य प्रदूषकों का ट्रीटमेंट प्लांट में ठीक से ट्रीटमेंट हो सकता। अभी भी भारत में ‘वेस्ट वाटर ट्रीटमेंट प्लांट’ में बहुत से रासायनिक तत्वों को अलग करना संभव नहीं है। इसके लिए प्रयास चल रहें हैं. जिससे आने वाले समय में रासायनिक प्रदूषण एवं आनुवंशिक तत्वों को हटाया जा सके।
कुछ अध्ययन बताते हैं कि फ्लोरोक्युइनोलोनेस (fluoroquinolones), अमिनोग्लीकोसीड्स (aminoglycosides), करबापिनेम ( carbapenem ) समूह के एंटीबायोटिक दवाओं लिए प्रतिरोधक क्षमता कम देखी गयी है मगर दूसरी तरफ कुछ आंकड़े बताते हैं कि बीटा लैक्टम (beta lactam) के बाद इसी क्लास के प्रति प्रतिरोधक क्षमता देखने को मिल रही है। sulfonamide,fluoroquinolones एंटीबायोटिक का इस्तेमाल यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फेक्शन,कृषि क्षेत्र और पशु पक्षियों के इलाज़ में होता है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में एंटीबायोटिक का इस्तेमाल काफी अधिक होता है। 2000 से 2015 के बीच यह खपत 103 % तक बड़ी है यानि 2.3 बिलियन से बढ़कर 6.5 बिलियन हो गयी। अध्ययन में 11 स्थानों में सबसे अधिक एंटीबायोटिक की मात्रा ऐसे स्थानों में पायी गयी जहाँ पर अस्पतालों एवं मानव गतिविधियों अधिक पायी गयी ऐसे स्थानों में अनियमित गतिविधियों के कारण इनका प्रतिशत काफी अधिक था।
पर्यावरण में बहुऔषध प्रतिरोधिकी के श्रोत, शोध नतीजों का चित्रमय सार
गंगा नदी के तट पर स्थित सैंपलिंग स्टेशनों पर एंटीबायोटिक प्रतिरोध की प्रवृत्ति (A: कानपुर; B: डलमऊ; C: कुंडा; D: मानिकपुर; E: झूंसी; F: मिर्जापुर; G: वाराणसी; H: रामनगर; I: मुगलसराय; J: सैदपुर; K: बलिया)
उत्तर प्रदेश के विभिन्न भौगोलिक सूचकांकों पर ईएसबीएल जीनोटाइप का प्रसार
इसी अध्ययन को विस्तार देते हुए अभी हाल में ही में डॉक्टर प्रीति चतुर्वेदी भार्गव और उनकी टीम ने गंगा समेत तीन और नदियों जिसमें हिंडन ,गोमती एवं यमुना भी शामिल है, इनकी स्थिति भी जानने की कोशिश की है। इसके लिए उन्होंने और उनकी टीम ने 25 किलोमीटर के अंतराल में इन सभी नदियों के पानी के नमूने एकत्र किये हैं। इस अध्ययन में चारों नदियों से लगभग 188 बैक्टीरिया एकत्र किये गए। इन सभी बैक्टीरिया पर 10 विभिन्न ग्रुप से सम्बंधित लगभग 16 एंटीबायोटिक का बैक्टीरिया पर क्या असर पड़ रहा है जानने का प्रयास किया। एकत्र किये गए 134 बैक्टीरिया में तीन या उससे अधिक एंटीबायोटिक दवा समूह के प्रति प्रतिरोधक क्षमता देखने को मिली है। इस अध्ययन के दौरान देखा गया कि बैक्टीरिया में जीन के स्तर पर एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधक क्यों और कैसे उत्पन्न हो रही है (antibiotic resistance gene ), एक साथ कई दवाओं के प्रति बैक्टीरिया की प्रतिक्रिया क्या है। इसे (multi drug resistance ) कहा जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह देखी गई कि यह जीवाणु पर्यावरण में किस प्रकार अपना जाल बिछा रहे हैं।
अध्ययन में पता चला है की प्रभावित बैक्टीरिया के भीतर डी एन ए के खंड कोशिका के भीतर अपना स्थान बदल लेते है। इस प्रकार के जीन को जंपिंग (जंपिंग), मोबाइल जीन एलिमेंट (mobile gene element) या इंटेग्रोन (integron)के नाम से भी जाना जाता है। यह जीन सिर्फ एक कोशिका में ही स्थान नहीं बदलते है ,इसके अलावा यह हॉरिज़ॉन्टली क्षैतिज दिशा में कूदकर दूसरे बैक्टीरिया को भी प्रभावित कर देते हैं। इससे साथ वाले बैक्टीरिया में भी प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है। इस तरह यह पूरे समूह को ही प्रभावित कर देते हैं। अध्ययन में कुछ बैक्टीरिया समूह में जीन की अलग तरह की भूमिका देखी गयी। यह एफलक्स पम्प जीन (Efflux pump Gene ) कहलाते हैं। यह जीन जीवाणु की ऊपरी सतह पर दुश्मन तत्व को पहचान करके उसे बैक्टीरिया के बाहर ही रोक देते हैं। इस प्रकार यह दवा को अपने भीतर आने ही नहीं देते हैं। इसके अलावा सूक्ष्म जीवों एवं बैक्टीरिया में पानी में घुलने वाले हैवी मेटल्स के प्रति भी प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो रही है। इसे हैवी मेटल्स रेजिस्टेंस जीन (heavy metals resistance gene ) कहते हैं। गंगा ,यमुना ,हिंडन एवं गोमती चारों नदियों में यह किस प्रकार है इन सभी बातों को अध्ययन में शामिल किया गया। अध्ययन बताते हैं कि चारों ही नदियों की गुणवत्ता पर काफी बुरा असर पड़ रहा है।
मानव जाती प्रभाव से एंटीबायोटिक प्रतिरोध जीन का नदी तंत्र में प्रसारण
नदी प्रणालियों में एंटीबायोटिक प्रतिरोधी का वितरण (R1-गंगा, R2-गोमती, R3-यमुना, और R4-हिंडन)
नदी प्रणालियों में एफ्लक्स पंप की रूपरेखा (R1-गंगा, R2-गोमती, R3-यमुना, और R4-हिंडन)
Gram positive bacteria (ग्राम पॉजिटिव बैक्टीरिया) -इन बैक्टीरिया की कोशिका भित्ति या कोशिकाओं की दीवारें (cell wall ), पेप्टाइडोग्लाइकन (peptidoglycan) की मोटी परतों से बनी होती हैं । मगर इसमें ऊपरी सतह नहीं होती है।
Gram negative bacteria ( ग्राम नेगेटिव बैक्टीरिया) - की कोशिका भित्ति पेप्टाइडोग्लाइकन (peptidoglycan) की पतली परत से बनी होती है।लेकिन इसके चारोँ तरफ लिपोपॉलिसकारिद (lipopolysaccharide) की बाहरी सतह भी होती है।
सुपरबग - एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध विकसित करने वाले सूक्ष्मजीवों को "सुपरबग" के नाम से जाना जाता है।
Effluents (एफ्लुएन्ट्स)- तरल अपशिष्ट , खासतौर पर फैक्ट्री से निकलने वाले रसायन।
By ,
P. Datt. Saxena
Credit :
Environmental Pollution 267 (2020) 115502
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Environmental Pollution
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Chemosphere 273 (2021) 129693
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Chemosphere
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Co-occurrence of multidrug resistance, ß-lactamase and plasmid mediated AmpC genes in bacteria isolated from river Ganga, northern India*
http://doi.org/10.1016/j.envpol.2020.115502
Dissemination of antibiotic resistance genes, mobile genetic elements, and efflux genes in anthropogenically impacted riverine environments
http://doi.org/10.1016/j.chemosphere.2021.129693
Preeti Chaturvedi, Deepshi Chaurasia, Ashok Pandey, Pratima Gupta, Pankaj Chowdhary, Anuradha Singh, Ram Chandra".
Aquatic Toxicology Laboratory, Environmental Toxicology Group, Council of Scientific and Industrial Research-Indian Institute of Toxicology Research (CSIR-IITR), Vishvigyan Bhawan, 31, Mahatma Gandhi Marg, Lucknow, 226001, Uttar Pradesh, India