भारतवर्ष की लाखों वर्ष की सभ्यता और विरासत को जानें …. geoheritage/geotourism
शुरुआत करते हैं राजस्थान से ...
राजस्थान राज्य अपने भीतर क्या-क्या रंग छुपाये हुए है शायद ही हम जान पाए। देश-विदेश से लोग इस राज्य की धरोहर, कलाकृति और सांस्कृतिक विरासत को देखने के लिए आते है लेकिन वह दिन दूर नहीं है जब यह राज्य जिओटोरिस्म (geotourism ) के रूप में भी प्रसिद्धि हासिल करेगा। क्यूंकि यह धरती हज़ारों नहीं बल्कि लाखों वर्षों का इतिहास अपने भीतर समेटे हुए है। अगर राजस्थान को जिओ टूरिज्म की नज़र से देखा जाये तो गलत नहीं होगा। यहाँ कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत के बारे में सभी जानते हैं लेकिन इसकी भूवैज्ञानिक विरासत (Geological heritage) की विश्व स्तर पर पहचान अभी भी बाकी है। राजस्थान में आठ यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल (world heritage sites) हैं लेकिन अभी भी कोई ‘यूनेस्को ग्लोबल जियोपार्क’ नहीं है। अब समय आ गया है कि राजस्थान में भी ग्लोबल जिओ पार्क स्थापित किया जाये।
भू-वैज्ञानिक विरासत और धरोहर को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने के लिए पूरे भारत में एक मुहिम शुरू हो चुकी है। इस मुहिम में ‘बीरबल साहनी पुरा विज्ञान संस्थान’, लखनऊ (Birbal Sahni Institute of Palaeosciences, Lucknow), की एक अहम भूमिका है। राजस्थान राज्य में भू-विरासत को आम जनता के बीच प्रसिद्धि दिलाने के लिए ‘ द सोसाइटी ऑफ अर्थ साइंटिस्ट’, राजस्थान सरकार का पर्यटन विभाग एवं उदयपुर स्थित ‘जे आर एन राजस्थान विद्यापीठ’ भी पूरी तरह से प्रयासरत है।
जिओटोरिस्म (geotourism) पर्यटन का वह भाग है जिसमे पर्यटक को भूवैज्ञानिक विरासत एवं स्थलों को देखने के लिए आकर्षित किया जा रहा है।
जिओटोरिस्म (geotourism) की दृष्टि से देखा जाये तो हम दो स्थानों का जिक्र करेंगे। इनमें जावर एवं झामरकोतरा मुख्य हैं। उदयपुर से कुछ ही दूरी पर स्थित जावर क्षेत्र में विश्व का पहला जस्ता प्रगलन स्थल (zinc smelting site) मिला है। इसे दुनिया की पहली जस्ता प्रगलन स्थल (Zinc smelting site) के रूप में मान्यता दी गई है।
झामरकोतरा स्ट्रोमॅटोसाइट्स (stromatolites ) के लिए आकर्षण का केंद्र बन रहा है। स्ट्रोमॅटो साइट्स पृथ्वी पर प्रारंभिक जीवन के विकास के संकेत को रिकॉर्ड करते हैं। पृथ्वी के इतिहास में 3900 मिलियन वर्ष से 538 मिलियन वर्ष के बीच कार्बोनेट चट्टानों के भंडार में स्ट्रोमेटोलाइट्स का विकास देखा गया है। फॉस्फेटिक स्ट्रोमेटोलाइट्स (phosphatic stromatolites) का सबसे प्रमुख क्षेत्र झामरकोतरा (jhamarkotra ) है। झामरकोतरा और जावर इन दोनों ही स्थलों को जीएसआई (Geological Society of India ) द्वारा राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारक( National Geological Monument ) घोषित किया गया है। इस स्थलों के बारे में लोगों में जागरूकता पैदा करने के लिए कार्यशालाएं भी आयोजित करी गयी हैं जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को इन स्थलों की महत्ता और भारत के लाखों पुराने इतिहास के बारे में पता चल सके।
जावर क्षेत्र में विश्व का पहला जस्ता प्रगलन स्थल (zinc smelting site) मिला है। इसे दुनिया की पहली जस्ता प्रगलन स्थल (Zinc smelting site) के रूप में मान्यता दी गई है। अनुमान लगाया गया है कि इस स्थान से जस्ते को विदेश में भेजा जाता होगा। इस भू-विरासत स्थल (Geo Heritage Site) पर कई प्राकृतिक (natural) और साथ ही सांस्कृतिक विरासत के भी तत्व प्राप्त हुए हैं। जावर क्षेत्र उदयपुर से लगभग 40 किमी दक्षिण में बीहड़ और घने जंगलों में स्थित है। यहाँ पर अभी भी जस्ता-सीसा (zinc-lead ) के भंडार मौज़ूद हैं। यह लगभग 20 किलोमीटर लंबी खनिजयुक्त पट्टी है जो जस्ता-सीसा से समृद्ध हैं और यह डोलोमाइट (dolomite) चट्टानों में पाया जाता है।
डोलोमाइट एक पारदर्शी खनिज होता है जिसमें कैल्शियम कार्बोनेट, मैग्नीशियम और आयरन भी पाया जाता है यह एक तरह से चट्टानों का रूप लेता है। इसी चट्टानों में जस्ता सीसा भी प्रचुर मात्रा में पाया गया है ।
जस्ता (zinc) अपने चांदी जैसे सफेद रंग (स्यूडो सिल्वर/ मॉक-सिल्वर) के कारण एक आकर्षक धातु है, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जस्ता तांबे (copper) के साथ मिलकर कठोर मिश्र धातु पीतल (brass) बनाता है। जिसने सदियों से मानव जाति को आकर्षित किया है। प्राचीन भारतीय साहित्य ग्रंथों जैसे चरक संहिता (900-600 ईसा पूर्व) और सुश्रुत संहिता 600 ईसा पूर्व) में औषधीय उपयोग के लिए जस्ता (zinc) का भी उल्लेख मिलता है तथा कौटिल्य अर्थशास्त्र (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) में भी इसका उल्लेख है और यह भी बताया गया है कि कैसे अयस्कों की खोज की जाती थी। इसके आलावा प्राचीन काल में जस्ते से निर्मित सिक्के का भी इस्तेमाल हुआ है। इससे पता चलता है कि भारत में हज़ारों वर्ष से जस्ते का इस्तेमाल किया जा रहा है।
लंदन स्थित ब्रिटिश संग्रहालय, बड़ोदा की एम.एस. यूनिवर्सिटी और हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड द्वारा किए गए पुरातत्व अध्ययन ने साबित कर दिया है कि विश्व में पहली बार जावर में ही जस्ते का (765 ईसा पूर्व से पहले) आसवन प्रक्रिया (distillation process) द्वारा उत्पादन किया गया था। एक धातु के रूप में, जस्ता का गलनांक (melting point ) काफी कम होता है (419.53°C) और क्वथनांक (boiling point ) भी निम्न (low) स्तर पर होता है यानी (907°C), इसलिए इसे आसवन प्रक्रिया द्वारा प्राप्त किया गया होगा। अध्ययन बताते हैं कि उस समय के लोगों को जस्ते के उत्पादन के लिए आसवन प्रक्रिया का विचार या प्रेरणा स्थानीय मादक पेय (हूच) बनाने के लिए उपयोग में आने वाली आसवन प्रक्रिया (distillation process) से मिली होगी । अमेरिकन सोसाइटी ऑफ मेटल्स (एएसएम इंटरनेशनल) ने 1988 में जावर को ‘अंतर्राष्ट्रीय ऐतिहासिक स्थलचिह्न’ (International historic landmark ) के रूप में मान्यता दी है। इस स्थान पर जस्ता रिटॉर्ट डिस्टिलेशन भट्टियां और संबंधित ऑपरेशन के अवशेष अभी भी संरक्षित हैं। इसके साथ-साथ गांव की कलाकृतियां एवं मंदिर के खंडहरों और अवशेष इस धातुकर्मीय प्रौद्योगिकी (metallurgical technology) की सफलता को पूरी तरह से प्रमाणित करते हैं।
लगभग सभी खान क्षेत्रों में प्राचीन खदान के द्वार (Ancient mine opening) दिखाई देते हैं, ये ज्यादातर खुले स्टॉप, खाइयों, कक्षों, दीर्घाओं, शाफ्ट, झुकाव और खुले गड्ढे वाली खानों के रूप में अभी भी मौजूद हैं । इसके साथ ही मिट्टी के अंडाकार आकार और सुराही नुमा गर्दन वाले बर्तन ( रिटॉर्ट) मिले है जिनका प्रयोग जस्ता प्रगलन के लिए किया जाता था। अध्ययन बताते हैं कि खनिज युक्त शिराओं की सतही उपस्थिति के आधार पर अयस्क को सतह पर खोज लिया जाता था।
अयस्क(ore ) -ऐसी चट्टानें या पृथ्वी के उस भाग को अयस्क (ore) कहते हैं जिनमें खनिज या धातु आदि महत्वपूर्ण तत्व होते हैं। अयस्कों को खनन (mining ) के माध्यम से बाहर निकाला जाता है, फिर इनका शुद्धीकरण करके महत्वपूर्ण तत्व प्राप्त किये जाते हैं।
प्राकृतिक अयस्क को धातु में बदलने की प्रक्रिया में सामान्य रूप से दो प्रमुख चरण शामिल होते हैं, अर्थात पिसाई (crushing) और खनिज को पृथक् करना। अयस्क के खनन के बाद उसे प्रगलन (smelting) के लिए तैयार करना आवश्यक होता था। अरावली पर्वतमाला में खानों के प्रवेश द्वारों के चारों ओर लगभग एक समान आकार की चट्टानों की उपस्थिति से पता चलता है कि अयस्क की पिसाई (crushing) खदान स्थल (mining site ) के आसपास के क्षेत्र में की जाती थी। खनन केंद्रों में और उसके आसपास लोहे के हथौड़े, मुसल और पत्थर के हथौड़ों के मिलने से यह साबित होता है कि उनका इस्तेमाल अयस्क को पीसने के लिए किया जाता था। जावर घाटी में ऐसे मोटार क्षेत्र भी मिले हैं जहां अयस्क को गलाने का काम किया जाता था । पिसाई के बाद, अयस्क के समृद्ध भाग को हाथ से अलग किया कर जाता था। जावर में प्राप्त अवशेषों से पता चलता है की लगभग 500 ईसा पूर्व जावर में छोटे पैमाने पर सीसा भी गलाया जाता था, जो संभवतः जस्ता खनन का उप-उत्पाद (by - product) था। शुरुआती भट्टियां मिट्टी से ढके पत्थर की थीं।
जावर में और भी महत्वपुर्ण स्थल छुपे हुए हैं जैसे जैन और हिंदू (विष्णु, शिव, देवी, सूर्य, हनुमान, गणपति) मंदिर जो पुरानी जावर बस्ती (जूनी जावर) में बहुतायत में हैं, यह स्थल समाज की आध्यात्मिक विविधता और समृद्धि को दर्शाते हैं। एक गुरुत्वाकर्षण चिनाई वाला बांध, पहाड़ी की चोटी पर स्थित किला, भली-भाँति डिज़ाइन की गई एक बावड़ी सह मंदिर जिसकी नक्काशी देखते ही बनती है इसके साथ ही बहुत से शिलालेख हैं, यह सभी जावर की रोचक स्थापत्य कला को दर्शाते हैं।
Zawar Geopark
जावर जिओ पार्क -जावर में स्थित प्राचीन खनन और धातुकर्म भू-विरासत (metallurgical geoheritage) स्थल जिओ पार्क (GEOPARK) बनने के लिए सभी जरूरतें पूरी करता है जो जिओ पार्क के लिए चाहिए। यहाँ पर भूवैज्ञानिक विरासत (geological heritage) अंतर्राष्ट्रीय महत्व (international importance) को पूरा करती है, यहाँ की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत, स्थानीय हस्तशिल्प और स्थानीय लोगों की भागीदारी इसे यूनेस्को आकांक्षी ग्लोबल जियोपार्क बनाने के लिए सभी जरूरतें पूरी करता है। इस दिशा में यानी इसे स्थापित करने के लिए विभिन्न एजेंसियों को एक साथ आना होगा......
झामरकोतरा
फास्फेटिक स्ट्रोमेटोलाइट
उदयपुर से 25 किलोमीटर दक्षिण पूर्व में झामेश्वर के पास उदयपुर जगत रोड पर स्ट्रोमेटोलाइट फॉसिल पार्क स्थित है। यह स्थान झामरकोतरा कहलाता है। यह पार्क झामेश्वरजी मंदिर के पास पहाड़ी पर स्थित है। स्ट्रोमेटोलाइट्स डोलोमाइटिक कार्बोनेट की चट्टानों पर विकसित हुए हैं। स्ट्रोमेटोलाइट एक प्रकार का एलगी या शैवाल है। मंदिर के पास इनकी विभिन्न किस्में, आकार और संरचनाएं मौजूद हैं। अध्ययन बताते हैं की उथले मरीन बेसिन में फलने-फूलने वाले नीले-हरे शैवाल (blue-green algae) इन स्ट्रोमैटो लिटिक संरचनाओं एवं फॉस्फेट के जमाव के जिम्मेदार रहे होंगे । यह अनोखे एलगी से निर्मित स्ट्रोमेटोलाइट जीवाश्म लगभग 1800 मिलियन वर्ष पुराने हैं और निचले अरावली सुपरग्रुप के झामरकोतरा फार्मेशन के डोलोमाइट चूना पत्थर में पाए जाते है । भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (Geological Survey of India ) ने इस स्थान को स्ट्रोमेटोलाइट्स का राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया है। अगर संरचना की बात करी जाए तो यह स्तंभाकार स्ट्रोमॅटो लाइट उलटे ट्यूब की एक श्रृंखला की तरह दिखते हैं, यह फास्फेटिक लामिनाई से बने होते हैं।
स्टेलेक्टाइट और स्टैलैग्माइट्स
इसी स्थान पर स्टेलेक्टाइट और स्टैलैग्माइट्स की मौजूदगी भी देखने को मिलती है। स्टेलेक्टाइट एक प्रकार का स्पेलियोथेम द्वितीयक खनिज (secondary mineral) है जो चूना पत्थर की गुफाओं की छत या दीवार से लटका होता है। स्टेलेक्टाइट चूना पत्थर की गुफा की छत से जुड़ा केल्साइट का एक बर्फ की एक लम्बी चट्टान के आकार का समूह है। स्टैलैग्माइट गुफा के फर्श से उठने वाले केल्साइट का एक कोन के आकार की दिखाई देने वाली संरचना है। स्टेलेग्माइट्स और स्टेलेक्टाइट्स अक्सर जोड़े में पाए जाते हैं। ठोस खंभे बनाने के लिए स्टेलेक्टाइट्स और स्टैलैग्माइट्स अक्सर एक दूसरे से मिलते हैं। स्टैलेक्टाइट्स, स्टेलेग्माइट्स के साथ साथ ड्रिपस्टोन की भी एक पर्त बन जाती है, इनकी उपस्थिति हवा को वजह से होती है।
भू विरासत स्थल (geo heritage site) की महत्ता
यूनेस्को ने वर्ष 2022 में 6 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय भू-विविधता दिवस (International biodiversity day ) घोषित किया है। भारत भू-विविधता (biodiversity) की दृष्टि से एक समृद्ध देश है। यहाँ पर पिछले 3.5 बिलियन वर्ष का इतिहास मौजूद है जो दर्शाता है कि किस प्रकार इस पृथ्वी का विकास हुआ। मौजूदा क्षेत्रों में कुछ क्षेत्र तो अपने आप में अद्भुत हैं। भारत में पाए जाने वाले रॉक्स पर्वत में तो ऐसे तथ्य छुपे हैं जो दुनिया के किसी भी कोने मैं शायद ही उपलब्ध हों। इनमें व्यापक तौर पर पेड़-पौधों की विभिन्न प्रजातियों, जन- जीवन का विलुप्त होना, जीवन का विकास, हिमालय की उत्पत्ति एवं निर्माण, उल्कापिंड के प्रभाव (meteorites impact crater) आदि सहित विभिन्न वैश्विक भूवैज्ञानिक घटनाओं के संकेतों को संजोए हुए है। हमारी इस समृद्धता को लोगों तक पहुँचने और विश्वस्तर पर इसकी पहचान दिलाने के लिए अब भारत बहुत तेज़ी से कार्य कर रहा है। इस अध्ययन से जुड़े संस्थान, राज्य सरकारें इस मिशन में पूरी तरह से जुट चुकी हैं। इसी के चलते दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय भू-विविधता दिवस का एक राष्ट्रीय कार्यक्रम मनाया गया, जिसके पश्चात् देशभर में अलग- अलग स्थानों में मौजूद महत्वपूर्ण भू-विरासत स्थल (geo heritage site) जैसे (bagh dinosaur geo heritage site Madhy Pradesh) बाग डायनासोर भू विरासत स्थल मध्य प्रदेश, कच्छ जुरासिक भू विरासत स्थल (Kutch jurassic geoheritage site ) में भी कार्यशालाएँ आयोजित करी गयीं।
क्या है युनेस्को ग्लोबल जिओपार्क
जियोपार्क के विकास के लिए यूनेस्को (UNESCO) का काम 2001 में शुरू हुआ। वर्ष 2004 में पेरिस के यूनेस्को मुख्यालय (UNESCO Headquarter) में ग्लोबल जियोपार्क नेटवर्क (जीजीएन) (Global Geopark Network ‘GGN’ ) बनाने के लिए 17 यूरोपीय और 8 चीनी जियोपार्क एक साथ आए । 17 नवंबर 2015 को यूनेस्को के 195 सदस्य देशों ने एक नए लेबल यूनेस्को ग्लोबल जियोपार्क (UNESCO Global Geopark) के निर्माण की पुष्टि की। आज 45 देशों में 177 यूनेस्को ग्लोबल जियोपार्क हैं लेकिन अफसोस की बात यह है कि भारत में अभी तक यूनेस्को ग्लोबल जियोपार्क नहीं बन पाया है। 'यूनेस्को ग्लोबल जियोपार्क’ क्षेत्र की प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत के सभी पहलुओं को उजागर करती है और भूगर्भीय विरासत को ध्यान में रखते हुए समाज को पृथ्वी के संसाधनों के इस्तेमाल और उसके संरक्षण, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करना और प्राकृतिक खतरे से संबंधित जानकारियां प्रदान करने का काम करता है।
By,
P.D.Saxena