प्लास्टिक छोड़ अब हम चले बायो प्लास्टिक की ओर ... Bioplastic will soon replace conventional plastic…an emerging market
Agro based bioplastic and Biosensors
प्लास्टिक से उत्पन्न होने वाला प्रदूषण विश्व स्तर पर एक चिंता का विषय बनता जा रहा है। रीयूज़ ‘reuse’, रीडयूज़ ’ reduce’ और री-साइकिल ‘recycle’ का मंत्र भी फीका पड़ रहा है। क्योंकि पारंपरिक प्लास्टिक के बढ़ते प्रदूषण के लिए यह उपाय काफी नहीं है। प्लास्टिक की अधिक मांग के कारण इसका उत्पादन भी काफी अधिक मात्रा में हो रहा है। आंकड़े बताते हैं कि 2018 में लगभग 359 मिलियन टन प्लास्टिक का उत्पादन हुआ, उसी वर्ष इसकी खपत के आंकड़े 385 मिलियन टन तक पहुंच गए। यानि उत्पादन से ज्यादा खपत हुई। रोज़मर्रा में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं से लेकर उद्योगों तक इसकी भारी मांग है। चिकित्सा (medical), कृषि, फार्मास्युटिकल्स (Pharmaceuticals) या दवा निर्माण, कपड़ा उद्योग, पैकेजिंग सम्बन्धी उद्योग (Packaging) आदि। प्लास्टिक बहुत बड़े स्तर पर प्रयोग में लाई जा रही है। उपयोग में आने वाली प्लास्टिक का बहुत कम हिस्सा ही पुनः इस्तेमाल में लाया जाता है, बाकी प्लास्टिक किसी न किसी रूप में पर्यावरण में घुलकर प्रदूषण फैला रही हैं। अफ़सोस की बात यह है कि इनका प्रबंधन (waste management) कायदे से नहीं हो रहा है। समस्या यह भी है कि बड़े प्लास्टिक के टुकड़े जब सूरज की किरणों के संपर्क में आते हैं तब सूरज से आने वाली पराबैंगनी किरणों (ultraviolet rays) एवं मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म जीवों की गतिविधियों के कारण यह सूक्ष्म (microplastic) या अतिसूक्ष्म प्लास्टिक कणों (nanoplastic) में विभाजित हो जाती है और अपने आसपास के पारितंत्र (ecosystem) एवं जैव विविधता (biodiversity) को प्रभावित करती है। यही वजह है कि वातावरण में प्लास्टिक के सूक्ष्मकणों की मात्रा बढ़ती जा रही है। यह सूक्ष्म कण मिट्टी में, समुद्र में घुलकर जलीय व स्थलीय जीवन के लिए खतरा बन रहे हैं। प्लास्टिक में कई रासायनिक तत्व मौजूद होते हैं। जब प्लास्टिक सूक्ष्म कणों में तब्दील हो जाती है तब इन कणों में भी इन रसायनों की मात्रा उपस्थित रहती है। माइक्रो/नैनो प्लास्टिक आकार में 5 mm से भी छोटे होते हैं। अध्ययन बताते हैं कि मृदा (soil) में इनकी बढ़ती मात्रा कृषि से जुड़े तंत्र के लिए काफी घातक साबित हो सकती है। जलीय पर्यावरण की बात करें तो माइक्रो प्लास्टिक का 3 % भाग समुद्र में मिल रहा है। जलीय प्रजातियों जिसमे प्लैंकटन (plankton), मुस्सेलस (mussels), मछलियों (fish), सी-रेप्टाइल्स (sea reptiles) एवं पक्षियों में प्लास्टिक के सूक्ष्म कण देखने को मिल रहे हैं।
इस गंभीर समस्या से निज़ात पाने के लिए वैज्ञानिक अब बायोडिग्रेडेबल (biodegradable) प्लास्टिक से जुड़े अध्ययन एवं शोध में तेज़ी ला रहे हैं। लक्ष्य यही है कि शीघ्रता से पारंपरिक प्लास्टिक के उपयोग पर रोक लग सके। बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक (biodegradable plastic) प्राकृतिक तत्वों से बनाए जाते हैं । जैव पदार्थों से बने होने के कारण यह पर्यावरण के लिए सुरक्षित हैं और जब यह अनुपयोगी हो जाते हैं तो यह मिट्टी में आसानी से घुल जाते हैं। कृषि, खाद सामग्री की पैकेजिंग से जुड़े उद्योगों में इनकी मांग बढ़ रही है। सीएसआईआर के प्रमुख संस्थानों में से एक लखनऊ स्थित भारतीय विष-विज्ञान अनुसंधान संस्थान (CSIR- Indian Institute of Toxicology Research, Lucknow ) के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ संदीप कुमार शर्मा (Dr. Sandeep Kumar Sharma) और उनकी टीम बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक से जुड़े अपने अध्ययन एवं शोध की दिशा में सिर्फ अग्रसर ही नहीं है बल्कि उन्होंने इस शोध को एक कदम और आगे बढ़ाने में भी सफलता हासिल करी है। डॉ शर्मा और उनके टीम के सदस्यों ने बताया कि यह शोध सिर्फ बायो प्लास्टिक (bioplastic) के निर्माण तक ही नहीं सीमित है बल्कि अन्य क्षेत्रों में यह किस प्रकार उपयोग में लाई जा सकती है, इस पर खास ध्यान दिया गया है। इनमें चिकित्सा (medical), फलों एवं अन्य पेय पदार्थों की पैकेजिंग संबंधी क्षेत्र सबसे ऊपर है।
चिकित्सा क्षेत्र में जाँच के लिए बहुत से उपकरण प्रयोग में लाये जाते हैं। इनमें बहुत सी जांच आम लोगों की रोज़मर्रा ज़िन्दगियों से भी जुड़ी होती हैं। इनमें मुख्यता देखभाल उपकरण जिन्हें ‘पॉइंट- ऑफ़-केयर’ (point of care) उपकरण भी कहा जाता है आदि आते हैं। इसके अंतर्गत ब्लड ग्लूकोज की जांच , प्रेगनेंसी टेस्ट, संक्रमण की जांच आदि शामिल है। इसके आलावा फलों एवं पेय पदार्थों की पैकेजिंग के दौरान उसकी गुणवत्ता के बारे में पता लगाना जैसे अनगिनत क्षेत्र शामिल हैं। इन सभी क्षेत्रों में पारंपरिक प्लास्टिक का इस्तेमाल किया जाता है। प्रयास यही हैं कि जैव पदार्थ से बनाया जाने वाला प्लास्टिक इसका स्थान ले सके। इस प्रकार हम पर्यावरण को बहुत हद तक प्लास्टिक के प्रदूषण से बचा सकेंगे।
डॉ संदीप कुमार शर्मा और उनकी टीम द्वारा अपने शोध के दौरान मक्के (corn) से प्राप्त किये गए पॉलीलैक्टिक एसिड, टैपिओका स्टार्च जो बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं और केले के छिलके से विकसित किये गए पाउडर के बीच क्रॉस लिंकिंग करके एक मेम्ब्रेन तैयार की गयी है। जैव पदार्थों से विकसित इस झिल्ली को बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक (biodegradable plastic) के रूप में विकसित किया गया है। विकसित करने के बाद मेम्ब्रेन के ऊपर कई प्रकार के परीक्षण किये गए। अध्ययन में देखा गया कि यह झिल्ली किस प्रकार पारंपरिक प्लास्टिक का स्थान ले सकती है। अध्ययन में एक और अहम बात सामने आयी कि इनका इस्तेमाल इलेक्ट्रोकेमिकल डिटेक्शन (electrochemical detection) के क्षेत्र में भी किया जा सकता है।
अध्ययन के दौरान तीन अहम पहलू पर काम किया गया, इनमें सार्स कोविड -2 (SARS CoV-2) जैसे घातक (virus) के संक्रमण की जीन स्तर पर पहचान करना, शरीर में ग्लूकोज की मात्रा के बारे में पता करना एवं पैकेज्ड फलों के रस की गुणवत्ता की जांच करना शामिल है। इन सभी शोध में मिली सफलता से यह उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में चिकित्सा क्षेत्र में होने वाली जांच और उसमे इस्तेमाल होने वाले उपकरण जो अधिकतर प्लास्टिक से निर्मित होते हैं, उसका स्थान यह प्राकृतिक रूप से सुरक्षित प्लास्टिक ले सकेगी। मेम्ब्रेन की गुणवत्ता, मज़बूती, लचीलापन इन पैमानों पर परखा गया। डॉक्टर शर्मा ने बताया की आजकल चिकित्सा जगत में इलेक्ट्रोकेमिकल डिटेक्शन ‘electrochemical detection’ की मांग तेज़ी से बढ़ रही है, क्यूंकि इसके परिणाम सटीक और जल्दी मिलते हैं। इसलिए झिल्ली (membrane) में देखा गया कि इसमें कन्डक्टिविटी ‘conductivity’ है कि नहीं। क्यूंकि जो पदार्थ कंडक्टिव ‘conductive’ होते हैं उन्हें इलेक्ट्रोकेमिकल डिटेक्शन के अंतर्गत किसी भी तरह की जांच के लिए सेंसर ‘sensor’ या इलेक्ट्रोड ‘electrode’ की तरह उपयोग में लाया जा सकता है। शोध से पता चला की यह झिल्ली कंडक्टिव है। इस प्रक्रिया के बाद इस मेम्ब्रेन का इस्तेमाल करके सार्स कोविड-2 (SARS CoV-2) की जीन स्तर पर पहचान करी गई। इस सफलता से भविष्य में सार्स कोविड-2 की जांच के लिए जैव पदार्थ से निर्मित इस झिल्ली को इस्तेमाल किया जा सकेगा।
दूसरा अहम् परीक्षण शरीर में ग्लूकोज़ की मात्रा को जांचने से सम्बंधित है। चिकित्सा क्षेत्र में बहुत सी जांच के लिए पहनने योग्य सेंसर इस्तेमाल किये जाते हैं। जब यह सेंसर शरीर के संपर्क में आते हैं तो यह शरीर की गतिविधियों को जांचने का काम करते हैं। जैव पदार्थ से निर्मित झिल्ली को एक पैच के रूप में तैयार किया गया है। शोध के दौरान पैच को त्वचा में लगाकर ग्लूकोज़ की जाँच करी गयी। इस प्रक्रिया में जब पैच पसीने के संपर्क में आता है तब यह ग्लूकोज की जांच करता है। आजकल बहुत से पैच बाजार में उपलब्ध हैं। यह सभी पैच प्लास्टिक से बनाये जाते हैं। विषाक्तता की दृष्टि से देखें तो यह पूरी तरह सुरक्षित नहीं होते हैं।
डॉक्टर शर्मा तीसरे अध्ययन के बारे में बताते हैं कि फल एवं बहुत से अन्य पेय पदार्थ (non alcoholic drink) जिसमें फलों के जूस आदि शामिल हैं, उनकी शेल्फ लाइफ (shelf life) बहुत सी आंतरिक एवं बाहरी कारकों पर निर्भर होती है। जूस एवं अन्य पेय-पदार्थों को बनाने एवं पैकेजिंग के दौरान इन्हें बहुत सी क्रियायों से गुज़रना पड़ता है। इस प्रक्रिया के तहत इनके रंग, स्वाद,गुणवत्ता और पौष्टिक गुणों पर खास ध्यान दिया जाता है। इस दौरान यह भी चैक करना जरुरी होता है कि यह ख़राब तो नहीं हो रहे। अगर जूस ख़राब होने लगता है तब उसमें फ्यूरान (furan) मिश्रण बनने लगता है जैसे हाइड्रोक्सी मिथाइल फ्यूरल (hydroxymethyl fural) यह एक कार्बनिक मिश्रण (organic compound) होता है। ‘फ्यूरान’ उसकी मौज़ूदगी से पता चलता है कि रस ठीक है या ख़राब हो चुका है। कृषि आधारित पदार्थों से तैयार मेम्ब्रेन से यह आसानी से पता किया जा सकता है। मेम्ब्रेन के ऊपर प्रयोग में लाये जाने वाले कुछ रासायनिक परीक्षण के तरीके संस्थान में ही मौजूद हैं, जिसका उन्हें पेटेंट (patent) भी प्राप्त है। इस जांच में मेम्ब्रेन द्वारा यह पता करना संभव है कि फल का रस (juice) ठीक है या ख़राब हो चुका है। फ्यूरान मिश्रण की उपस्थिति और अनुपस्थिति से जूस की गुणवत्ता बताई जा सकती है। इस मेम्ब्रेन को इस प्रकार तैयार किया गया, की यह हाइड्रोक्सी मिथाइल फ्यूरल की पहचान कर सके। मेम्ब्रेन को कोलोरिमेट्रिक सेंसर की तरह इस्तेमाल किया गया। यहाँ इंडिकेटर के तहत जूस की गुणवत्ता का पता रंग बदलने से चलता है। शोध के अंतर्गत जैव पदार्थ की विषाक्तता भी जांची गयी। इसके लिए फ़ूड चैन के अहम् जीव जंतुओं यानि केचुए, जेब्रा फिश, एलगी आदि को जैवपदार्थ को खाने के तौर पर दिया गया और पाया की यह पूरी तरह से सुरक्षित है।
कंडक्टिव (conductive )-ऐसी वस्तु या पदार्थ जो अपने में से ताप विद्युत को गुजरने देने में समर्थ होता है।
इलेक्ट्रोकेमिकल डिटेक्शन (electrochemical detection) - के तहत बायो सेंसर का इस्तेमाल करके जैविक नमूनों की जांच की जाती है। इस प्रक्रिया में जैविक वस्तुओं पर इलेक्ट्रॉनिक सिगनल दिए जाते हैं।
मेम्ब्रेन (membrane)- एक प्रकार की झिल्ली होती है।
by:
P.Datt.Saxena
Credit:
Carbohydrate Polymers
Contents lists available at ScienceDirect
Carbohydrate Polymers.
journal homepage: www.elsevior.com/locate/carbpol
Polylactic acid/tapioca starch/banana peel-based material for colorimetric and electrochemical biosensing applications
Pawankumar Rai", Srishti Mehrotra, Krishna Gautam, Aditya K. Kar, Apoorva Saxena, Satyakam Patnaik, Sadasivam Anbumani, Ashok Pandey, Smriti Priya", Sandeep K. Sharma
Food drug and Chemical Toxicology Group CSIR-Indian Institute of Toxicology Research, India Regulatory Toxicology Group, CSIR-Indian Institute of Toxicology Research, India Centre for Innovation and Translational Research, CSIR-Indian Institute of Toxicology Research, India System Toxicology & Health Risk Assessment Group, CSIR Indian Institute of Toxicology Research, Vishvigyan Bhawan, 31, Mahatma Gandhi Marg Lucknow 226001 Uttar Pradesh, India
Academy of Scientific and Industrial Research (ACSIR), Ghaziabad 201002.