पर्यटनों और शोधकर्ताओं के लिए क्यूँ खास है कश्मीर कि जांस्कर घाटी... करोड़ो वर्षों के साक्ष्य प्रदान करता यह क्षेत्रीय संग्रहालय...
Zanskar valley/geoheritage/kashmir, ladakh
भारत के पास एक समृद्ध भूवैज्ञानिक विरासत है जो इसे अद्वितीय देश की श्रेणी में शामिल करती है।जिस प्रकार शहरीकरण और औद्योगीकरण के चलते हर दिशा में विकास हो रहा है डर इस बात का है कि कहीं भूवैज्ञानिक संपदा लुप्त न हो जाए। यदि इस दिशा में प्रबल नीतियां नहीं बनायीं गई और कठोर कदम नहीं उठाए गए तो हम अपनी अनमोल धरोहर को शीघ्र खो देंगे और भावी पीढ़ी के लिए कुछ भी शेष नहीं रहेगा। भूवैज्ञानिक धरोहर/विरासत का संरक्षण इसलिए आवश्यक है क्यूंकी यह वह स्थल हैँ जिनकी भूगर्भीय दृष्टि से अहमियत होती है, जो हमे उस स्थल की संरचनात्मक, स्तरीकिय, पुराजीवाश्मकिय तथा भूआकृतिक संबंधी जानकारी प्रदान करते हैं। जो क्षेत्र की उत्पत्ति, उस काल की पुराजलवायु संबंधी जानकारी प्रदान करने में सहायक होंते है, तथा हमें पृथ्वी के विकास और पुराविज्ञान के बारे में बताते हैँ। अनुसंधान, शिक्षा हेतु पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। लखनऊ स्थित बीरबल साहनी पुराविज्ञान संस्थान (Birbal Sahni Institute of Palaeosciences-BSIP) के निदेशक प्रो. एम.जी.ठक्कर और उनकी टीम ने अपने अध्ययन के माध्यम से भूसम्पदा के संरक्षण हेतु हिमालय के कुछ अछूते स्थल पर रोशनी डाली है जो हमे करोड़ो वर्ष पहले के दर्शन कराते हैं। प्रागैतिहासिक जलवायु तथा जीवन को वर्तमान से जोड़ते हैं। प्रो ठक्कर के अनुसार इस अध्ययन का सिर्फ यही उद्देश्य है कि भूगर्भीय तथा पारिस्थितिक क्षेत्रों को भावी पीढ़ी तथा वैश्विक पर्यटकों हेतु संरक्षित रखा जा सके। प्रत्यक्ष और दीर्घकालिक राजस्व हेतु भू-धरोहर स्थलों को जियोपर्क के रूप में संरक्षित किया जा सके।
प्रो. ठक्कर का मानना है कि हिमालय हमारे देवी-देवताओं और ऋषि मुनियों की भूमि है तथा प्राचीन काल से यह हमारी सभ्यता और अस्तित्व का अभिन्न अंग है। यह स्थल प्राचीन वैदिक लोगों के लिए औषधीय पौधों, खनिजों के उपयोग तथा अध्ययन का स्थान हुआ करता था। ऋषियों, प्राचीन वैज्ञानिकों ने ज्ञान की खोज हेतु कठोर तपस्या के लिए इस स्थान का चुनाव किया क्यूंकी वह यहाँ की विशेषताओं से भलीभाँति परिचित रहे होंगे। हिमालय के इन ऊंचे पहाड़ों, बर्फ से ढकी चोटियों, घाटियों, घने-वन और ठंडे मरुस्थल में वनस्पतियों तथा जीवों के संरक्षण में उनका अमूल्य योगदान है। यह स्थान अनगिनत वनस्पतियों का वास है। इन्हें खत्म होने से नहीं बचाया तो शायद भविष्य में भूवैज्ञानिकों, छात्रों और शोधकर्ताओं को अपने प्राचीन इतिहास को जानने का अवसर भी नहीं मिलेगा। इस अध्ययन से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि विश्व में पहली बार इस प्रकार के अध्ययन में आकाशीय मार्ग का सहारा लिया गया। इन स्थलों को हवाई भूधरोहर स्थल के रूप में इंगित किया है।
कुमाऊं से ज़ांस्कर तक टेथियन अवसादीय क्षेत्र को दर्शाता एक मानचित्र
कश्मीर और लद्दाख के मध्य स्थित खूबसूरत जांस्कर घाटी करोड़ो वर्ष के इतिहास को अपने भीतर संजोय हुए है। यह स्थल भूवैज्ञानिकों तथा शोधकर्ताओं हेतु अध्ययन का एक आदर्श क्षेत्र है तथा पर्यटनों के लिए एक क्षेत्रीय संग्रहालय है। प्रो ठक्कर के अनुसार भारत के अधिकांश पर्वतीय क्षेत्रों की तुलना में कश्मीर हिमालय की जांस्कर रेंज मानव गतिविधियों से कम प्रभावित है। अभी भी यह स्थल कम विकास के कारण पर्यटनों की नज़रों से दूर हैं यहाँ की चरम जलवायु के कारण घाटी तक पहुंचना भू वैज्ञानिकों के लिए भी एक चुनौती है। यहाँ ग्लेशियरों/हिमनदियों तक पहुंचना संभव है शायद इसलिए हिमनद, भू-आकृति विज्ञान, जीवाश्म विज्ञान तथा भूविज्ञान पर अध्ययन हेतु यह सबसे उपयुक्त जगह है। भूवैज्ञानिक रूप से यह स्पीति बेसिन के उत्तर-पश्चिमी विस्तार को दर्शाता है और लद्दाख हिमालय के दक्षिणी भाग को निर्मित करता है।
संकू से पेन्सि-ला तक के क्षेत्र का एक भूवैज्ञानिक मानचित्र
यह श्रेणी दक्षिण-पश्चिम एवं उत्तर-पूर्व में विशाल/ग्रेट हिमालय तथा लद्दाख श्रंखला के मध्य स्थित है। यह पर्वत श्रंखला क्रिस्टलीय है और उच्च हिमालयी क्रिस्टलीय, पैलियोज़ोइक और मेसोज़ोइक(टेथिस) अनुक्रमों को प्रदर्शित करते हैं। यानि यह क्षेत्र प्रीकैंब्रियन, कैंब्रियन (538.8ma-485.4ma) से लेकर वर्तमान तक के रहस्य अपने भीतर समेटे हुए है। यह स्थान कैंब्रियन युग से संबंधित पर्वतनी विवर्तनिक, लिथोलोजिकल सेटिंग्स(पृथ्वी के स्तरिकीय वितरण में उपस्थित अवसाद, शैलसमूह तथा उनके प्रकार से संबन्धित विशेषताएँ) तथा जीव जंतुओं के अवशेषों से युक्त एक आदर्श क्षेत्रीय संग्रहालय है। यह स्थान हमे 50 मिलियन पूर्व की पूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं। प्रो ठक्कर ने बताया कि जुरासिक काल (210 Ma – 145 Ma) तथा ट्राइएसिक (300ma – 210 Ma) काल के मध्य टेक्टोनिक खंड टकराए और फोल्डिंग हुई उसके अभिलक्षण यहाँ स्पष्ट तौर पर देखे जा सकते हैं।
अध्ययन हेतु 15 भूधरोहर स्थलों का चयन किया गया जो विस्तृत भूगर्भीय जानकारी प्रदान करते हैं। इनमें कारगिल से जांगला तक सुरू, शांकू, डोडा और ज़ांस्कर घाटियां आदि मुख्य हैं। ज़ांस्कर का अपना नाम वहाँ के स्थानीय शब्द “ज़ंगस्कर”से प्राप्त हुआ है। इसका अर्थ सफेद तांबा/व्हाइटकॉपर होता है। यह स्थान एक बौद्ध क्षेत्र है यहाँ मुस्लिम आबादी कम है। यह स्थान ~7000 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैला हुआ है। समुद्र से औसत 3500 और 7000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। चरम जलवायु परिस्थितियों के कारण नवंबर से जून तक यह दुनिया के बाकी हिस्सों से कटा रहता है, हेलीकॉप्टर सेवा या जमी हुई ज़ांस्कर नदी, जिसे आम तौर पर चादर रोड कहा जाता है, ही बाहरी दुनिया से जोड़ने का एकमात्र साधन होती है, जो ज़ांस्कर को लेह से जोड़ती है।
गूगल इमेज में कारगिल से सुरु, डोडा और ज़ांस्कर नदी घाटियों में ज़ंगला तक का मार्ग। जहाँ भू-विरासत विशेषताओं को चिह्नित किया गया है और समझाया गया है। (बी) भू-विरासत स्थलोको रेखाचित्र के मध्यम से समझाया गया है (यह स्थल प्रीकैम्ब्रियनयुग से लेकर क्वाटरनरी तक, कारगिल से जांगला तक)।
अध्ययन से जुड़े कुछ अहम पहलू
कारगिल में मिलने वाले मोलैसेस अनुक्रम करोड़ो वर्ष पूर्व दो महाद्वीपीय टकराव तथा टेथिस समुद्र की उपस्थितिको प्रमाणित करते है। स्ट्रोमेटोलाइट्स की उपस्थिती प्रारम्भिक जीवन यानि प्रीकैंब्रियन काल (538.8ma से पहले) को प्रमाणित करती है।
माणिक, टोपाज, नीलम आदि जैसे असंख्य रत्न विविधता तथा यहाँ के खनिज इस स्थल को आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण बनाते हैं।
सुरु घाटी में पार्काचिक ग्लेशियर हिमनदों के अध्ययन हेतु उपयुक्त स्थल हैँ तथा यह क्षेत्र मार्ग के करीब है। डोल्मापॉइंट पर द्रंग-द्रुंग ग्लेशियर इस क्षेत्र का सबसे ऊंचा दर्रा है और यह सड़क के काफी पास है।
हवाई मार्ग के माध्यम से भू-विरासत अध्ययन की नई अवधारणा की शुरुआत ज़ांस्कर घाटी के अध्ययन हेतु की गई है क्योंकि आकाशीय मार्ग से पर्वत श्रंखला की बहुत सी विशेषताएं स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती इस अध्ययन से ग्लेशियरों के भू-आकृतिक अध्ययन, जलवायु परिवर्तन, ग्लेशियरों का पीछे हटना आदि को समझना मुमकिन है।
ज़ांस्कर नदी के किनारे जंगला गाँव के पास, जुरसिक-किओटो चुना पत्थर पर प्राचीन लोगों द्वारा स्थानीय जानवरों जैसे पहाड़ी बकरियों या इबरिस के उकेरे गए चित्र मिले हैं। इन चुना पत्थरों पर एसी कई दिलचस्प आकृतियाँ उकेरी गयी हैं जो दर्शाती हैं की प्राचीन काल से इस भूमि पर मनुष्यों का वास रहा है ।
वनस्पति, जीव-जंतु, प्राचीन संस्कृति, जातीय विविधता, लोक संस्कृति और रीति-रिवाज अभी भी पूरी तरह से संरक्षित हैं।
यह क्षेत्र कार्गिल युद्ध कि भूमि है यहाँ पर युद्ध के शहीदों के लिए कार्गिल वार मेमोरियल है। यहाँ का प्रचलित फल एप्रीकोट (Apricot) है जिसे स्थानीय लद्दाखी भाषा में चुल्ली कहते हैं तथा कार्गिल एवं कश्मीरी भाषा में खुबानी कहते हैं इस फल को सदियों पहले इस आर्दक्षेत्र में सिल्क रूट के माध्यम से यात्रा करने वाले चीनी व्यापारियों द्वारा प्रचलित किया गया अब यह फल यहाँ कि संस्कृति, विरासत और अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन चुका है।
A) खुबानी ‘एप्रीकोट ’B) मरमोट चूहा C) याक D)जांगला गांव के पास पुरातात्विक स्थल जहां किओटो चूना पत्थर पर प्राचीन लोगों ने स्थानीय जानवरों–पहाड़ी बकरीया इब्रिस को दर्शाया है E,F,G)जांस्कर के विशेष फूल G)जंस्कार घाटी के जनजातीय लोग
इस स्थान का एक खास जन्तु जिसे हिमालयन मरमोट या लंबी पूंछ वाला लद्दाखी चूहा भी कहते हैं इसका वजन 9 किलो तक होता है और इसकी लंबाई 5 से 31 इंच तक होती है।
प्राचीन काल से यह क्षेत्र औषधीय वनस्पतियों कि भूमि रहा है और एशियाई पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों के तहत अधिकांश पारंपरिक चिकित्सा हेतु औषधीय वनस्पतियों का स्रोत रहा है। भारतीय ठंडे मरुस्थल के ट्रांसहिमालयी क्षेत्रों में सबसे अधिक प्रचलित पारंपरिक चिकित्सा‘आमची चिकित्सा पद्धति’ (तिब्बती चिकित्सा) है, और इस चिकित्सा के चिकित्सकों को अमचिस (सभी में श्रेष्ठ) कहा जाता है।
By
Parul Datt Saxena
Credit:
Geoheritage Merits of the Zanskar Range of the Kashmir Himalaya: a Field Geology Museum from Precambrian to Present
M. G. Thakkar1 Gaurav Chauhan1 Aadil Hussain Padder1 Suraj Kumar Parcha2 Shubhra Sharma3 V. C. Thakur2 C. P. Dorjay4
Geoheritage (2023) 15:75
https://doi.org/10.1007/s12371-023-00842-9